Tuesday, September 15, 2020

पंचमुंडी प्रेतासन Panch mundi aasan

 प्रेतासन के कुछ मुख्य प्रकार:-

पंचमुंडी, सप्त मुंडी, नव मुंडी आसन:-


पंच-मुंडी आसन:-

आगम तंत्र के अनुसार सबसे पहले आपके पास खुद की जमीन चाहे मंदिर की ही हो 

फिर चंडाल (मुर्दा जलाने वाला), बिजजू, सियार, जहरीले साँप की खोपड़ी और बंदर की खोपड़ी यह पांच तरह की खोपड़ी और एक मनुष्य की खोपड़ी अलग से पूजन के लिए टोटल 06 खोपड़ी गणेश, पंच देव,भैरव के बाद पंचामृत से पांच खोपड़ियों को स्नान करने के बाद अलग-अलग मंत्र से पंचोपचार पूजन के बाद खोपड़ियो को गड्ढे में  गाड़ कर ऊपर सीमेंट का चबूतरा वरना कर शमशान काली की मूर्ति विधिवत प्राणप्राठिसता करके मंत्र  सिद्ध करें,पांच खोपड़ी  में चार को मांसाहार और बंदर की खोपड़ी के लिए  फल का भोग चढ़ाने की रोजाना नियमित रूप से भोग और पूजन करना चाहिए, मै  पूजन करवा सकता हूं

साँप की मंडी शुक्रवार को, इंसान, बिज्जू/बैजर और बन्दर की शनिवार को, सियार/लोमड़ी की बुधवार को

इन सबको पहले से जुगाड़ करके शनिवारी अमावस्या को आसन बनाने के लिए लाना है, फिर शुद्धि करना है गंगाजल या नदी के जल से नही शराब से धोकर शुद्धि करनी है

बांये में बंदर की मुंडी, दाँये में सियार की मुंडी, चारों के बीच में मनुष्य की मुंडी, सियार के साइड में सांफ की मंडी और बंदर की साइड में बिज्जू की मंडी 

भोग:- धूप, डीप अगरबत्ती, शराब रोज 03 महीने तक, अमावस्या और पूर्णिमा को मछली जलाना है साथ मे मछली के मास के साथ सूखा तेल, काले सरसों, मुर्गी से मिलाकर कुल 06 लड्डू बनाने है अमावस्या पूर्णिमा को भोग के लिए बंदर के लिए सात्विक या फल, 03-04 महीने में जब सिद्ध होजाए तो स्वप्न में पता चलेगा 02-03 साल भी लग सकते है सिद्ध होने पर

खोपड़ी पर हाथ रखकर आच्छादन जप करना है मनुष्य की खोपड़ी पर 108 और बाकी पर 54 बार

सावधानी:-

1. भोग डेली लगना हर अगर 01 सप्ताह भी चुके तो फिर दोबारा आसन पर बैठना के बारे में भूल जाना

2. गलती से भी गंगाजल, तुलसी या किसी तीर्थ का जल न पड़े, ध्यान रखे कुत्ते आदि जाकर न बैठ

3. स्थान स्वयं का निजी हो सरकारी, नगर निगम, दूसरे की जमीन पर न बनाये और मिटाने अपने जीवन काल में कभी भूल न करें 4. लाइफटाइम भोग देना है, सुरक्षा रखनी है !

कब्र बिज्जू (Honey badger):
बिज्जू दुनिया का सबसे निर्भीक जीव, जो शेर जैसे अपनेक्से बड़े जीव को भी अपनी ताकत और क्रूरता के भागने ने सक्षम होता है,
बिज्जू जाति के जीव में एक प्रजाति ऐसी भी आती है, बिज्जू और कब्र बिज्जू दोनों अलग है, जमीन में गड़े मुर्दों को खाते हैं। ये बिज्जू इतने शातिर होते हैं कि जमीन में कई-कई फुट गहरे सुरंगनुमा गड्ढे खोद देते हैं कि जमीन में दबी कब्रों तक पहुंच जाते हैं, जहां से यह कब्रों में दबाई गई लाशों को खा जाते हैं। कब्रों को खोदने में माहिर माने जाने वाले इस बिज्जू को कब्रबिज्जू भी कहा जाता है। खूखार जीव है बिज्जू की मोटी चमड़ी के कारण अन्य जानवर इससे दूर रहते हैं। यह लंबी मांद बनाकर रहता है। इसके शरीर का ऊपरी भाग भूरा, बगल और पेट काला तथा माथे पर चौड़ी सफेद धारी होती है। हर पैर पर पांच मजबूत नाखून होते हैं जो मांद खोदने के काम आते हैं। यह अपने पुष्ट नखों से कब्र खोदकर मुर्दा भी खा लेता है। यह सर्वभक्षी जानवर है। खास बात यह है कि जमीन के नीचे दबे मुदरें को शिकार बनाता है। पानी की तलाश में यह जंगल से आबादी की ओर आ जाता है। तालाब और नदियों के किनारे 25-30 फीट लंबी मांद बनाकर रहते हैं। बता दें कि यह मनुष्य को हानि तो नहीं पहुंचाता मगर जान पर बन आने पर किसी को भी काट लेता है।

Sunday, September 13, 2020

तंत्र और बलि भाग - 01

 बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है। इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है।


हमारे शास्त्रों मे बलि के दो रूपों का वर्णन मिलता है

१.वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि शब्द से अभिहित होते हैं।

२.दूसरा पशु आदि का बलिदान है 

विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथमोक्त बलि है यह अन्न भाग देवयज्ञ के लक्ष्यभूत देव के प्रति एवं जल , वृक्ष , गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट होता है

हमारे प्राचीन गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है

बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है

स्मार्त पूजा में पूजोपकरण अर्थात जिससे देवताओं की पूजा की जाती है उसे भी बलि कहा दाता है


बलि पूजोपहार: स्यात

यह बलि भी देव के प्रति उत्सृष्ट होती है

देवी-देवता के उद्देश्य में छाग आदि पशुओं का जो हनन किया जाता है वह बलिदान ही कहलाता है.... तंत्र आदि में महिष , छाग , गोधिका , शूकर , कृष्णसार, शरभ, हरि (वानर) आदि अनेक पशुओं को बलि के रूप में माना गया है

इक्षु, कूष्मांड आदि नानाविध उद्भिद् और फल भी बलिदान माने गए हैं

बलि के विषय में अनेक विधिनिषेध हैं बलि को बलिदानकाल में पूर्वाभिमुख रखना चाहिए और खंडधारी बलिदानकारी उत्तराभिमुख रहेगा - यह प्रसिद्ध नियम है

बलि योग्य पशु के भी अनेक स्वरूप लक्षण कहे गए हैं।

पंचमहायज्ञ के अंतर्गत बलि के कई अवांतर भेद कहे गए हैं - आवश्यक बलि, काम्यबलि आदि इस प्रसंग में ज्ञातव्य हैं

कई आचार्यों ने छागादि पशुओं के हनन को तामसपक्षीय कर्म माना है, यद्यपि तंत्र में ऐसे वचन भी हैं जिनसे पशु बलिदान को सात्विक भी माना गया है

कुछ ऐसी पूजाएँ हैं जिनमें पशु बलिदान अवश्य अनुष्ठेय होता है


हिन्दु तंत्रों मे जो निम्न प्रकार से इनमें बलि के बारे में विस्तार पूर्वक से हमे ज्ञान मिलता है :-

वीरतंत्र,

भावचूड़ामणि,

यामल,

तंत्रचूड़ामणि,

प्राणतोषणी

महानिर्वाणतंत्र,

मातृकाभेदतंत्र,

वैष्णवीतंत्र,

कृत्यमहार्णव,

वृहन्नीलतंत्र,


इन ग्रंथों में बलिदान विशेषकर पशुबलिदान संबंधी चर्चा का विस्तार से वर्णन आया है❗️

इन सबके अलावा तंत्र मे अनेक प्रकार से बलि दी जाती है जैसे कि

१.जडी -बूटियों के माध्यम से

२.नीबूं

३.जायफल

४.हरडा

५.नारियल

६.कलेजी

इत्यादि अनेक प्रकार से कुछ साधनाओं मे सात्विक बलियों का विधान प्राप्त होता है

कुछ तंत्र पद्धति मे तामसिक बलि का वर्णन आता है जैसे कि :-

१.मुर्गे

२.भेड-बकरे

३.मांस

४.कलेजी

५.अण्डे

६.मत्स्य

७. मदिरा

इत्यादि अनेक प्रकार का विधान है ...

हर क्षेत्र मे अपनी अपनी क्षेत्र रीति के अनुसार ही बलि प्रथा व विधान प्रचलित है

जैसी जैसी साधनाये वैसा वैसा विधान प्रचलित है

हर क्षेत्र मे किसी न किसी देवी देवता को वर्ष मे एक बार बलि अवश्य ही चढ़ाते है

क्योंकि यह रीत हमारे पूर्वजों से होती आ रही है और हम सब उनके द्वारा बनाये गये विधान व रीति के अनुसार अपने अपने क्षेत्र के देवी देवता की रीति को अपनाते आ रहे है


कहीं कही पे भैंसा की बलि ,सुअर की बलि,या किसी अन्य वन्य जीव की बलि चढ़ाने की प्रथा प्रचलित है

👉🏻पर जब बात हमारे वैदिक व यज्ञ अनुष्ठान या तंत्र के पूर्वाचार समयाचार दक्षिणाचार की आती है तो बलि का विधान सात्विकता ले लेता है

👉🏻फिर तंत्र मे बिशिष्ट जड़ी बूटी ,नींबू ,फल,नारियल ,जायफल,कायफल,या किसी अन्य सात्विक वस्तु की बलि ही दी जाती है

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सात्विक पूजा में पशुबलि सर्वथा निषिद्ध है । महाकाल संहिता में स्पष्ट लिखा गया है कि जो आराधक सात्विक आराधना करता है, वह बलिदान के लिए भूल से भी पशुहत्या नहीं करता । वह ईख, कूष्मांड (सीताफल), नीबू व अन्य वन्यफलों की बलि देता है या खीरपिंड, आटे अथवा चावल से पशु बनाकर बलि देता है ।


आगमशास्त्र में तांत्रिक साधना की सिद्धि के लिए पशुबलि के महत्त्व को रेखांकित किया गया है । काली को तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक मानवबलि दिया करते थे । आजकल साधना के अंत में साधक काली को बकरे की बलि देते हैं ।


शक्ति देवियों की आराधना तीन प्रकार से की जाती है--सात्विक, राजस और तामस । निस्वार्थ और कामनारहित की जाने वाली आराधना सात्विक होती है । इसमें पशुबलि विधान नहीं है । राजस आराधना स्वार्थवश की जाती है । आराधक यश और संपन्नता की इच्छा से आराधान करता है । स्वार्थपूर्ति के लिए वह पशुबलि देने से भी नहीं हिचकता । तांत्रिकों और अघोरियों में तामस आराधना का विधान है । आराधना के बाद देवी काली को पशुबलि और मदिरा चढाते हैं और स्वयं मांस और मदिरा का सेवन करते हैं ।

यज्ञ और तंत्र साधना में ‘‘पशु बलि’’ का प्रचलन सर्वविदित है। कामाख्या शक्तिपीठ, छिन्नमस्ता और कालिका सहित कई देवी मंदिरों में  पशुबलि अनिवार्य विधान के रूप में प्रचलित है।


‘पौरोहित्य कर्म प्रशिक्षक’’ के अनुसार पिंडदान में गौबलि, काकबलि, श्वानबलि का के मंत्र हैं जिनके आधार पर गाय, कौआ व कुत्ते का पिण्ड निकालने की व्यवस्था है, न कि पशु वध करने की। 


तंत्र साधना में पंचमकार के आधार पर पशुबलि का प्रावधान है। ‘‘कामाख्यातंत्रम्’’ नामक ग्रन्थ के तृतीय पटल के श्लोक सं. 22 से 30 तक पंचमकार की महिमा का वर्णन किया गया है। ग्रन्थकार लिखता है - ‘‘मद्येन मोदते स्वर्गे, मांसेन मानवाधिपः, मत्स्येन भैरवीपुत्रो मुद्रया धातृतां व्रजेत, परेण च महादेवि सायुज्यं लभते नरः।’’ पंचमार प्रयोक्ता मद्य (शराब) के द्वारा देवी की पूजा करने से स्वर्ग में आनंद उठाता है, मांस से पूजा करने पर साधक ‘‘शासक’’ बन जाता है, मत्स्य के द्वारा देनी की अर्चना करने से साधक भैरवीपुत्र हो जाता है। मैथुन से साधक शक्ति के साथ सायुज्य प्राप्त करता है। ग्रन्थ के पंचम एवं षष्ठ पटल में पंचमकार के तहत मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन से उपासना विधि का उल्लेख किया गया है। श्रीरुद्रयामल तंत्रोक्त ‘‘श्रीदेवी रहस्यम्’’ नामक ग्रन्थ के पन्द्रहवें-सोलहवें पटल में श्मशानार्चन विधि का विस्तार से उल्लेख है। उन्नीसवें पटल में मद्योत्पत्ति का रहस्य उल्लिखित है, जबकि 20वें पटल में पात्रवंदन विधि का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा- ‘‘पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले। पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।’’ 22वें पटल में द्रव्यशोधन विधान के अंतर्गत श्लोक सं. 135 से 137 तक मत्स्यशोधन मंत्र विधान करते हुए ग्रन्थकार लिखता है- ‘‘कलि से पीड़ित संसार के दुख निवारणार्थ स्वयं विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था। कौलिकों के कल्याण की इच्छा से वे बलि से निग्रहीत हुए। गंध-पुष्प से मत्स्य पूजनकर परा देवता को प्रणाम करें। श्लोक सं. 138 से 141 तक मांस शोधन विधान है- ‘‘एक चतुरस्र बनाकर उसपर मांसपात्र को रखें। पूर्वोक्त विधि से शोषण, दाहन एवं प्लावन करके धेनु, योनि, मत्स्यमुद्रात्रय प्रदर्शित करें मत्र्यों के त्राण के लिए छाग-लाजा (बकरा-भेड़) का रूप विष्णु ने ग्रहण किया। शिवशक्ति की बलि के लिए प्रतर्पित करता हूं।’’   ‘‘महानिर्वाणतंत्रम्’’ ग्रन्थ के पंचम उल्लास में पंचमकार शोधनविधि बताई गई है, जबकि षष्ठ उल्लास में पंचमकार के क्रमशः भेद बताते हुए ग्रन्थकार लिखता है - मांसं तु त्रिविधं प्रोक्तं जलभूचरखेचरम्। यस्मात्तस्मात्समानीतं येन तेन विधातितम्।।’’ मांस तीन प्रकार का होता है जलचर का मांस, भूचर का मांस एवं खेचर का मांस। मांस देवों को प्रसन्नता प्रदायक होता है। यहां यह उल्लेखनीय है- ‘‘बलिदानविधौ देवि विहितः पुरुषः पशुः। स्त्रीपशुर्न च हन्तव्यस्तत्र शाम्भवशासनात्।।’’ हे देवि! बलिदान में नरपशु ही विहित है, महादेव के शासन में मादापशु की हत्या नहीं करनी चाहिए। इसी क्रम में मत्स्य भेद इस प्रकार है- ‘‘तीन प्रकार के उत्तम मत्स्य शाल, वोयाल और रोहू हैं। अन्य कंटकहीन मछली मध्यम् और बहुत कांटों वाली मछली अधम है, जिसे अच्छी तरह तलकर ही देवी को दे सकते हैं। षष्ठ उल्लास में श्लोक सं. 104 से 110 तक पशुबलि विधान बताया गया है- ‘‘बलि के लिए प्रशस्त पशु दश माने गये हैं। 1 मृग (हिरन), 2 छाग (बकरा), 3 मेष (भेड़), 4 महिष (भैंसा), 5 शूकर (सुअर), 6 शल्लकी साहिल, 7 शशक (खरगोश), 8 गोधा (गोह), 9 कूर्म (कछुआ) 10 गंडार। साधक देवी के सामने पशु को खड़ा करके अघ्र्यजल से नहलाये और धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करे। ‘‘छागाय पशवे नमः’’ मंत्र से यथा संभव गंध, सिन्दूर, पुष्प, नैवेद्य से पूजन करेपशु के दायें कान में पशुगायत्री मंत्र ‘‘पशुपाशाय विद्महे विश्वकर्मणे धीमहि तन्नो प्रचोदयात्’’ सुनावे। श्लोक सं. 111 से 114 तक खड्ग पूजन विधि बताई गई है। श्लोक संख्या 115 से 118 तक बलिदान विधान है- ‘‘विधिपूर्वक निवेदन करके पशु को भूमि पर खड़ा करें देवी भक्ति पररायण होकर तीक्ष्ण प्रहार से पशु का सिर छेदन कर दें। ‘‘एष कवोष्णरुधिर बलिः ऊं बटुकेभ्योः नमः’’ का उच्चारण करते हुए उष्ण रुधिर की बलि वटुक को प्रदान करें। तब कटे हुए शिर को थाल में रखकर उसके ऊपर दीपक जलाये ‘‘एष सम्प्रदीपशीर्षबलिः ऊं ह्रीं देव्यै नमः’’ का उच्चारण करते हुए देवी को अर्पित करें। कौलिकों के कुलार्चन में इसी प्रकार की बलि का विधान है। बिना बलिदान के देवता की प्रीति कदापि नहीं प्राप्त होती है। तंत्रसाधना में नरबलि एवं पशुबलि को आवश्यक विधान कहना कतई गलत नहीं है, क्योंकि विभिन्न तंत्र-ग्रन्थ मांसादि पंचमकार के तहत पशुबलि की अनिवार्यता को प्रामाणिकता प्रदान कर रहे हैं। ‘‘श्रीविद्यासाधना’’ के द्वितीय अध्याय में पंचमकार की प्रतीकार्थ विवेचना में मद्य को सहस्रदल कमल के चन्द्रमा से क्षरित मधुरूप अमृत कहा गया है, जबकि मांस को ऐसे निर्मल मन की संज्ञा दी गई है, जो ज्ञान रूपी खड्ग से पाप-पुण्यरूपी पशु बलि से विशुद्ध है। मत्स्य को गंगा-यमुना (इड़ा-पिंगला) में प्रवाहित श्वांस-प्रश्वांस कहागया है, मुद्रा को असत्संग के परित्याग और मैथुन को कुण्डलिनी शक्ति का सहस्रारस्थ शिव के साथ मिलन का प्रतीक सिद्ध किया गया है। ‘‘एकजटातारासाधनतन्त्रम्’’ में बलि निवेदन मंत्र ‘‘ऊं ह्रीं एकजटे महायक्षाधिपतये मयोपनीतं बलिं गृहाण गृहाण गृह्णापय गृह्णापय मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु परविद्याकृष्याकष्य क्रट क्रट छिन्धि छिन्धि सर्वजगद्वशमानय ह्रीं स्वाहा’’। श्लोक सं. 171 से 176 तक बलिदान मंत्र दिये गये हैं। ‘‘मातृकाभेदतन्त्रम्म्’ ग्रन्थ के दशम् पटल में कहा गया है- ‘‘बलिदानं प्रकर्तव्यं न मांसं भक्षयेन्नरः, सम्यक् फलं न लभते दशांशं लभते प्रिये।’’ यदि बलि के बाद मनुष्य उसके मांस का भक्षण नहीं करता है तो उसे पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती, मात्र उसे दशांश भाग का ही फल प्राप्त होता है। यहां दशम् पटल के श्लोक सं. 12 से 18 तक पशुबलि की अनिवार्यता के महात्म्य की विवेचना की गई है। इसी क्रम में मुंडमाला तन्त्र में ‘‘छागे दत्ते भवेद्वाग्मी मेषे दत्ते कविर्भवेत्, महिषे धनवृद्धिः स्यान्मृगे मोक्षफलं लभेत्। पक्षिदाने समृद्धिः स्याद् गोधिकायां महाफलम्, नरे दत्ते महर्दि्धः स्यादष्टसिद्धिरनुत्तमा।’’ छाग (बकरा) की बलि से वाक्पटुता आती है, मेष (भेड़) बलि देने से कवि होता है, महिष (भैंसा) बलिदान से धनवृद्धि, हिरन बलि से मोक्ष प्राप्ति होती है, पक्षी देने से समृद्धि, गोह देने से महाफल, नर बलि से महर्दि्ध होती है ये उत्तम अष्टसिद्धि भेद हैं। यहीं आगे नरबलि का निषेध भी है ‘‘सिंहव्याघ्रनरान् दत्वा ब्राह्मणो रौरवं ब्रजेत्।’’ तथा ‘‘कालीतन्त्र’’ के एकादश पटल में उल्लेख है ‘‘ंददाति बलिं यस्तु शिवायै शिवताप्तये, स पापिष्ठो नाधिकारी कुलदेव्याः समच्र्चने।’’ ‘‘महाकालसंहिता’’ ग्रन्थ के षष्ठ पटल में श्लोक सं. 94 से 106 तक बलिदान निमित्त खड्गसिद्धि और खड्ग समर्पण मंत्र और विधान हैं। श्लोक सं. 107 ‘‘ततः स्वगात्ररुधिरं देव्यै दद्यान्नृपो बलिम्, ततो दद्यान्नरबलिमभावे महिषायुतम्।’’ खड्ग पूजनोपरान्त राजा (साधक) अपने शरीर की बलि दे, इसके बाद नरबलि। नरबलि के अभाव में महिष (भैंसा) की बलि दे। इसी ग्रन्थ के सप्तम् पटल के श्लोक सं. 59 से 96 तक पशं-पक्षियों और मनुष्य की बलि तथा मांस-होम विधान एवं महात्म्य का विस्तृत वर्णन है। ‘‘त्रिपुरार्णवतन्त्रम्’’ ग्रन्थ की एकोनविंश (19वीं) तरंग के श्लोक 140 से 150 तक विशेष बलि विधान है। ‘‘ दद्यान्मंत्रेण खड्गं तु तस्मै प्रत्यंग्मुखस्ततः, शमितोदंग्मुखः छागं प्रार्थयेत् प्रांमुखं पशुम्।  ततोऽस्त्रमुच्चरंश्छिन्द्यात् सकृद्घातेन वै गले, गत प्राणं दक्षपृष्ठ-प्रांग्मुर्धानं विनिक्षिपेत्। मस्तकेन च संयोज्य ततस्तु छुकिा तथा दद्यात्तस्मै तथा मत्स्यान् घातयेदखिलामपि।’’  उपासनायुक्त, श्रद्धाभक्तिसमन्वित शान्त एवं सौम्य सच्छूद्र की नियुक्ति करे। फिर पश्चिममुख खड़े उस वधिक के हाथ में अभिमंत्रित तलवार दे शान्त उत्तरमुख पशु को पूर्वाभिमुख यजमान तत्पश्चात हथियार उठाकर एक ही घात में छाग का सिर धड़ से अलग कर दे गत प्राण छाग की पीठ दक्षिण एवं शिर पूर्व की ओर करके रख दे। शिर को धड़ से जोड़कर, उसके हाथ में छुरी दे दे, उससे वह सारी मछलियों को मार दे। आत्मनियन्त्रित व्यक्ति की उपस्थिति में उन्हें भी वस्त्र से ढँककर उनकी पूजा कर उन्हें अन्न वस्त्र विसर्जित कर दे। आचार्य के साथ पूर्व कथित क्रम के मन्त्रोच्चार के साथ पशु के अंग को आगे रखकर कलश जल से सिंचित करे। हाथ में छुरी लेकर मंत्र पढ़ते हुये उसके शरीर का टुकड़ा करे, इससे पूर्व उसे बाँधकर उसकी खाल उड़ेल दे। सूक्ष्मदृष्टि से मछलियों को भी उसी तरह कर, हे शंकरि, मंत्र पढ़ते हुये पाकशाला में सौंप देना चाहिये। साधकाचार्य को यह दिखलायें, वे भी इसे अलग पकायें, अथवा हे देवेशि, उनके अंग-प्रत्यंगों को अभिसिंचित कर एक साथ पकायें। आचार्य फिर लौटकर वहाँ आ जायें और छाग एवं मछलियों के रक्त, जो वहाँ धरती पर गिरे हों उन को उठाकर देवी को समर्पित कर दें। फिर, वहाँ हड्डियाँ, मल, पित्त और कफादि, खुर, चमड़ी आदि को भी मण्डप के बीच में खोदकर गाड़ दें।     

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शक्तिपीठ रहस्य:

 


कामाख्या वरदे देवी नील पर्वत वासिनी

तं देवी जगन्नमाता योनी मुद्रे नमोस्तुते"

कामाख्ये काम सम्पने कामेश्वरी हर प्रिये।

कामनां देहि मे नित्यं कामेश्वरी नमोस्तुते।।

कामदे कामरुपस्थे सुभगे सुरसेविते।

करोमि दर्शनं देव्यां सर्वकामार्थ सिद्धेय।।


ॐ महेशानि महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनी 

आयुष्य आरोग्य देहि मे देवी परमेश्वरी !


ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते।।


ॐ सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके

शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते !!


दुर्गति-नाशिनी दुर्गा जय जय, काल विनाशिनी काली जय जय।उमा रमा ब्रह्माणी जय जय, राधा-सीता-रुक्मिणि जय जय॥


महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि ।

हरि प्रिये नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं दया निधे ।।


काली काली महाकाली कालिके पापनाशिनी

खड्गहस्ते मुण्डहस्ते काली काली नमोस्तुते !!

काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी सर्वानन्दकरी देवी नारायणी नमोस्तुते !!


ॐ ह्रीं दुम दुर्गायै नमः ! ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम: 

ॐ ह्रीं बं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरूकुरू बटुकाय ह्रीं।


शक्तिपीठ रहस्य:

देवी भागवत पुराण में 108 (इनमें जहाँ जहाँ देवी के आभूषण गिरे थे वह भी शामिल हैं), कालिका पुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा शप्त सती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। आमतौर पर 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं। तंत्र चूड़ामणि में लगभग 52 शक्ति पीठों के बारे में बताया गया है।


सिद्धपीठ अलग है

शक्तिपीठ अलग देवी के अंगों के अलावा जहाँ देवी की आभूषण गिरे वह भी शक्तिपीठ माने गए है तंत्रचूड़ा मणि


#देवी के हृदय के ऊपर के अंग जहाँ जहाँ गिरे वहाँ दक्षिण मार्ग/वैदिक सिद्धि मिलती है जहाँ देवी के हृदय के नीचे के अंग गिरे है वहाँ वाम मार्ग की सिद्धि मिलती है, यहाँ बलि अवशय लगती है, शराब अवश्य लगती है !


1.) हिंगलाज

कराची से 125 किमी दूर है। यहां माता का ब्रह्मरंध (सिर) गिरा था। इसकी शक्ति-कोटरी (भैरवी-कोट्टवीशा) है व भैरव को भीम लोचन कहते हैं।


2.) शर्कररे

पाक के कराची के पास यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता की आंख गिरी थी। इसकी शक्ति- महिषासुरमर्दिनी व भैरव को क्रोधिश कहते हैं।


3.) सुगंधा

बांग्लादेश के शिकारपुर के पास दूर सोंध नदी के किनारे स्थित है। माता की नासिका गिरी थी यहां। इसकी शक्ति सुनंदा है व भैरव को त्र्यंबक कहते हैं।


4.) महामाया

भारत के कश्मीर में पहलगांव के निकट माता का कंठ गिरा था। इसकी शक्ति है महामाया और भैरव को त्रिसंध्येश्वर कहते हैं।


5.) ज्वालाजी

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में माता की जीभ गिरी थी। इसे ज्वालाजी स्थान कहते हैं। इसकी शक्ति है सिद्धिदा (अंबिका) व भैरव को उन्मत्त कहते हैं।


6.) त्रिपुरमालिनी

पंजाब के जालंधर में देवी तालाब, जहां माता का बायां वक्ष (स्तन) गिरा था। इसकी शक्ति है त्रिपुरमालिनी व भैरव को भीषण कहते हैं।


7.) वैद्यनाथ

झारखंड के देवघर में स्थित वैद्यनाथधाम जहां माता का हृदय गिरा था। इसकी शक्ति है जय दुर्गा और भैरव को वैद्यनाथ कहते हैं।


8.) महामाया

नेपाल में गुजरेश्वरी मंदिर, जहां माता के दोनों घुटने (जानु) गिरे थे। इसकी शक्ति है महशिरा (महामाया) और भैरव को कपाली कहते हैं।


9 .) दाक्षायणी

तिब्बत स्थित कैलाश मानसरोवर के मानसा के पास पाषाण शिला पर माता का दायां हाथ गिरा था। इसकी शक्ति है दाक्षायणी और भैरव अमर।


10.) विरजा

ओडिशा के विराज में उत्कल में यह शक्तिपीठ स्थित है। यहां माता की नाभि गिरी थी। इसकी शक्ति विमला है व भैरव को जगन्नाथ कहते हैं।


11.) गंडकी

नेपाल में मुक्ति नाथ मंदिर, जहां माता का मस्तक या गंडस्थल अर्थात कनपटी गिरी थी। इसकी शक्ति है गंडकी चंडी व भैरव चक्रपाणि हैं।


12.) बहुला

प. बंगाल के अजेय नदी तट पर स्थित बाहुल स्थान पर माता का बायां हाथ गिरा था। इसकी शक्ति है देवी बाहुला व भैरव को भीरुक कहते हैं।


13.) उज्जयिनी

प. बंगाल के उज्जयिनी नामक स्थान पर माता की दाईं कलाई गिरी थी। इसकी शक्ति है मंगल चंद्रिका और भैरव को कपिलांबर कहते हैं।


14.) त्रिपुर सुंदरी

त्रिपुरा के राधाकिशोरपुर गांव के माता बाढ़ी पर्वत शिखर पर माता का दायां पैर गिरा था। इसकी शक्ति है त्रिपुर सुंदरी व भैरव को त्रिपुरेश कहते हैं।


15.) भवानी

बांग्लादेश चंद्रनाथ पर्वत पर छत्राल (चट्टल या चहल) में माता की दाईं भुजा गिरी थी। भवानी इसकी शक्तिहैं व भैरव को चंद्रशेखर कहते हैं।


16.) भ्रामरी

प. बंगाल के जलपाइगुड़ी के त्रिस्रोत स्थान पर माता का बायां पैर गिरा था। इसकी शक्ति है भ्रामरी और भैरव को अंबर और भैरवेश्वर कहते हैं।


17.) कामाख्या

असम के कामगिरि में स्थित नीलांचल पर्वत के कामाख्या स्थान पर माता का योनि भाग गिरा था। कामाख्या इसकी शक्ति है व भैरव को उमानंद कहते हैं।


18.) प्रयाग

उत्तर प्रदेश के इलाहबाद (प्रयाग) के संगम तट पर माता के हाथ की अंगुली गिरी थी। इसकी शक्ति है ललिता और भैरव को भव कहते हैं।


19.) जयंती

बांग्लादेश के खासी पर्वत पर जयंती मंदिर, जहां माता की बाईं जंघा गिरी थी। इसकी शक्ति है जयंती और भैरव को क्रमदीश्वर कहते हैं।


20.) युगाद्या

प. बंगाल के युगाद्या स्थान पर माता के दाएं पैर का अंगूठा गिरा था। इसकी शक्ति है भूतधात्री और भैरव को क्षीर खंडक कहते हैं।


21.) कालीपीठ

कोलकाता के कालीघाट में माता के बाएं पैर का अंगूठा गिरा था। इसकी शक्ति है कालिका और भैरव को नकुशील कहते हैं।


22.) किरीट

प. बंगाल के मुर्शीदाबाद जिला के किरीटकोण ग्राम के पास माता का मुकुट गिरा था। इसकी शक्ति है विमला व भैरव को संवत्र्त कहते हैं।


23.) विशालाक्षी

यूपी के काशी में मणिकर्णिका घाट पर माता के कान के मणिजडि़त कुंडल गिरे थे। शक्ति है विशालाक्षी मणिकर्णी व भैरव को काल भैरव कहते हैं।


24.) कन्याश्रम

कन्याश्रम में माता का पृष्ठ भाग गिरा था। इसकी शक्ति है सर्वाणी और भैरव को निमिष कहते हैं।


25.) सावित्री

हरियाणा के कुरुक्षेत्र में माता की एड़ी (गुल्फ) गिरी थी। इसकी शक्ति है सावित्री और भैरव को स्थाणु कहते हैं।


26.) गायत्री

अजमेर के निकट पुष्कर के मणिबंध स्थान के गायत्री पर्वत पर दो मणिबंध गिरे थे। इसकी शक्ति है गायत्री और भैरव को सर्वानंद कहते हैं।


27.) श्रीशैल

बांग्लादेश केशैल नामक स्थान पर माता का गला (ग्रीवा) गिरा था। इसकी शक्ति है महालक्ष्मी और भैरव को शम्बरानंद कहते हैं।


28.) देवगर्भा

प. बंगाल के कोपई नदी तट पर कांची नामक स्थान पर माता की अस्थि गिरी थी। इसकी शक्ति है देवगर्भा और भैरव को रुरु कहते हैं।


29.) कालमाधव

मध्यप्रदेश के शोन नदी तट के पास माता का बायां नितंब गिरा था जहां एक गुफा है। इसकी शक्ति है काली और भैरव को असितांग कहते हैं।


30.) शोणदेश

मध्यप्रदेश के शोणदेश स्थान पर माता का दायां नितंब गिरा था। इसकी शक्ति है नर्मदा और भैरव को भद्रसेन कहते हैं।


31.) शिवानी

यूपी के चित्रकूट के पास रामगिरि स्थान पर माता का दायां वक्ष गिरा था। इसकी शक्ति है शिवानी और भैरव को चंड कहते हैं।


32.) वृंदावन

मथुरा के निकट वृंदावन के भूतेश्वर स्थान पर माता के गुच्छ और चूड़ामणि गिरे थे। इसकी शक्तिहै उमा और भैरव को भूतेश कहते हैं।


33.) नारायणी

कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग पर शुचितीर्थम शिव मंदिर है, जहां पर माता के दंत (ऊर्ध्वदंत) गिरे थे। शक्तिनारायणी और भैरव संहार हैं।


34.) वाराही

पंचसागर (अज्ञात स्थान) में माता की निचले दंत (अधोदंत) गिरे थे। इसकी शक्ति है वराही और भैरव को महारुद्र कहते हैं।


35.) अपर्णा

बांग्लादेश के भवानीपुर गांव के पास करतोया तट स्थान पर माता की पायल (तल्प) गिरी थी। इसकी शक्ति अर्पणा और भैरव को वामन कहते हैं।


36.) श्रीसुंदरी

लद्दाख के पर्वत पर माता के दाएं पैर की पायल गिरी थी। इसकी शक्ति है श्रीसुंदरी और भैरव को सुंदरानंद कहते हैं।


37.) कपालिनी

पश्चिम बंगाल के जिला पूर्वी मेदिनीपुर के पास तामलुक स्थित विभाष स्थान पर माता की बायीं एड़ी गिरी थी। इसकी शक्ति है कपालिनी (भीमरूप) और भैरव को शर्वानंद कहते हैं।


38.) चंद्रभागा

गुजरात के जूनागढ़ प्रभास क्षेत्र में माता का उदर गिरा था। इसकी शक्ति है चंद्रभागा और भैरव को वक्रतुंड कहते हैं।


39.) अवंती

उज्जैन नगर में शिप्रा नदी के तट के पास भैरव पर्वत पर माता के ओष्ठ गिरे थे। इसकी शक्ति है अवंति और भैरव को लम्बकर्ण कहते हैं।


40.) भ्रामरी

महाराष्ट्र के नासिक नगर स्थित गोदावरी नदी घाटी स्थित जनस्थान पर माता की ठोड़ी गिरी थी। शक्ति है भ्रामरी और भैरव है विकृताक्ष।


41.) सर्वशैल स्थान

आंध्रप्रदेश के कोटिलिंगेश्वर मंदिर के पास माता के वाम गंड (गाल) गिरे थे। इसकी शक्तिहै राकिनी और भैरव को वत्सनाभम कहते हैंं।


42.) गोदावरीतीर

यहां माता के दक्षिण गंड गिरे थे। इसकी शक्ति है विश्वेश्वरी और भैरव को दंडपाणि कहते हैं।


43.) कुमारी

बंगाल के हुगली जिले के रत्नाकर नदी के तट पर माता का दायां स्कंध गिरा था। इसकी शक्ति है कुमारी और भैरव को शिव कहते हैं।


44.) उमा महादेवी

भारत-नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट मिथिला में माता का बायां स्कंध गिरा था। इसकी शक्ति है उमा और भैरव को महोदर कहते हैं।


45.) कालिका

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नलहाटि स्टेशन के निकट नलहाटी में माता के पैर की हड्डी गिरी थी। इसकी शक्ति है कालिका देवी और भैरव को योगेश कहते हैं।


46.) जयदुर्गा

कर्नाट (अज्ञात स्थान) में माता के दोनों कान गिरे थे। इसकी शक्ति है जयदुर्गा और भैरव को अभिरु कहते हैं।


47.) महिषमर्दिनी

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में पापहर नदी के तट पर माता का भ्रुमध्य (मन:) गिरा था। शक्ति है महिषमर्दिनी व भैरव वक्रनाथ हैं।


48.) यशोरेश्वरी

बांग्लादेश के खुलना जिला में माता के हाथ और पैर गिरे (पाणिपद्म) थे। इसकी शक्ति है यशोरेश्वरी और भैरव को चण्ड कहते हैं।


49.) फुल्लरा

पश्चिम बंगला के लाभपुर स्टेशन से दो किमी दूर अट्टहास स्थान पर माता के ओष्ठ गिरे थे। इसकी शक्ति है फुल्लरा और भैरव को विश्वेश कहते हैं।


50.) नंदिनी

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नंदीपुर स्थित बरगद के वृक्ष के समीप माता का गले का हार गिरा था। शक्ति नंदिनी व भैरव नंदीकेश्वर हैं।


51.) इंद्राक्षी

श्रीलंका में संभवत: त्रिंकोमाली में माता की पायल गिरी थी। इसकी शक्ति है इंद्राक्षी और भैरव को राक्षसेश्वर कहते हैं।


52.) अंबिका

विराट (अज्ञात स्थान) में पैर की अँगुली गिरी थी। इसकी शक्ति है अंबिका और भैरव को अमृत कहते हैं।


पंचमकार Panch makar

  पंच तत्त्व (पंच मकार):

तंत्र में पंचमकार (पांच बार म, म, म, म, म) 1. मद्य, 2. मांस, 3. मत्स्य, 4. मुद्रा और 5. मैथुन। 

शरीर जिन पांच तत्वों से बना है, क्रमानुसार वे हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। 


पंचमकार का अर्थ है, जिसमे पांच मकार अर्थात पांच म शब्द से शुरू होने वाले अवयव आयें यथा मांस-मदिरा-मत्स्य-मुद्रा और मैथुन। कौलावली निर्णय में यह मत दिया है की मैथुन से बढ़कर कोई तत्व् नहीं है।, इससे साधक सिद्ध हो जाता है, जबकि केवल मद्य से भैरव ही रह जाता है, मांस से ब्रह्म, मत्स्य से महाभैरव और मुद्रा से साधकों में श्रेष्ठ हो जाता है। केवल मैथुन से ही सिद्ध हो सकता है। 

पंचमकार केवल वज्रयानी साधना और वाम मार्ग में मान्य है। वैष्णव, शौर्य, शैव, शाक्त व गाणपत्य तंत्रों में पंचमकार को कोई स्थान नहीं मिला। काश्मीरी तंत्र शास्त्र में भी वामाचार को कोई स्थान नहीं है। वैष्णवों को छोड़कर शैव व् शाक्त में कहीं कहीं मद्य, मांस व् बलि को स्वीकार कर लिया है, लेकिन मैथुन को स्थान नहीं देते। वाममार्ग की साधना में भी 15-17वीं सदी में वामाचार के प्रति भयंकर प्रतिक्रिया हुई थी। विशेषकर महानिर्वाण तंत्र, कुलार्णव तंत्र, योगिनी तंत्र, शक्ति-संगम तंत्र आदि तंत्रों में पंचमकार के विकल्प या रहस्यवादी अर्थ कर दिए हैं। जैसे मांस के लिए लवण, मत्स्य के लिए अदरक, मुद्रा के लिए चर्वनिय द्रव्य, मद्य के स्थान पर दूध, शहद, नारियल का पानी, मैथुन के स्थान पर साधक का समर्पण या कुंडलिनी शक्ति का सहस्त्रार में विराजित शिव से मिलन। यद्यपि इन विकल्पों में वस्तु भेद है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है की वामाचार के स्थूल पंचतत्व शिव-शक्ति की आराधना के उपकरण हैं।

यह पञ्च या पांच तत्व हैं 1. मद्य, 2. मांस 3. मतस्य 4. मुद्रा तथा 5. मैथुन, इन समस्त द्रव्यों को कुल-द्रव्य भी कहा जाता है। सामान्यतः इनमें से केवल मुद्रा (चवर्ण अन्न तथा हस्त मुद्रायें) को छोड़ कर सभी को निन्दित वस्तु माना जाता है, वैष्णव सम्प्रदाय तो इन समस्त वस्तुओं को महा-पाप का कारण मानता है, मद्य या सुरा पान पञ्च-महा पापों में से एक है। परन्तु आदि काल से ही वीर-साधना में इन सब वस्तुओं के प्रयोग किये जाने का विधान है। कुला-चार केवल साधन का एक मार्ग है, तथा इस मार्ग में प्रयोग किये जाने वाले इन पञ्च-तत्वों को केवल अष्ट-पाशों का भेदन कर, साधक को स्वतंत्र-उन्मुक्त बनाने हेतु प्रयोग किया जाता है। साधक इन समस्त तत्वों का प्रयोग अपनी आत्म-तृप्ति हेतु नहीं कर सकता, इनका कदापि आदि नहीं हो सकता, साधक केवल अपने इष्ट देवता को समर्पित कर ग्रहण करने का अधिकारी है, यह केवल उपासना की सामग्री है, उपभोग की नहीं। अति-प्रिय होने पर भी, इन तत्वों से साधक किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रख सकता है, यह ही साधक के साधना की चरम पराकाष्ठा है। देखा जाये तो आदि काल से ही शैव तथा विशेषकर शक्ति संप्रदाय से सम्बंधित पूजा-साधना तथा पितृ यज्ञ कर्मों में मद्य, मांस, मीन इत्यादि का प्रयोग किया जाता रहा है।


तंत्र शास्त्र Tantra Shastra

 तंत्र शास्त्र के अंतर्गत सात प्रकार के साधना पद्धतियों का प्रचलन या वर्णन प्राप्त होता है,

1–वेदाचार

2– वैष्णवाचार

3–शैवाचार

4–दक्षिणाचार

5–वामाचार

6–सिद्धान्ताचार

7–कुलाचार


 जो 03 मुख्य धारणाओं में विभाजित हैं :- प्रथम पश्वाचार या पशु भाव तथा द्वितीय–वीराचार। इसके अतिरिक्त दिव्य-भाव त्रय के अंतर्गत सम्पूर्ण प्रकार के सिद्धि पश्चात जब साधक स्वयं शिव तथा शक्ति के समान हो जाता हैं। पशु भाव के अंतर्गत चार प्रकार के साधन पद्धतियों को समाहित किया गया है जो निम्नलिखित हैं।


1. वेदाचार, 2. वैष्णवाचार, 3. शैवाचार 4. दक्षिणाचार।


1. वेदाचार : तंत्र के अनुसार सर्व निम्न कोटि की उपासना पद्धति वेदाचार हैं, जिसके तहत वैदिक याग-यज्ञादि कर्म विहित हैं।


2. वैष्णवाचार : सत्व गुण से सम्बद्ध, सात्विक आहार तथा विहार, निरामिष भोजन, पवित्रता, व्रत, ब्रह्मचर्य, भजन-कीर्तन इत्यादि कर्म विहित हैं।


3. शैवाचार : शिव तथा शक्ति की उपासना, यम-नियम, ध्यान, समाधि कर्म विहित हैं।


4. दक्षिणाचार : उपर्युक्त तीनों पद्धतियों का एक साथ पालन करते हुए, मादक द्रव्य का प्रयोग विहित हैं।


दक्षिणा-चार (पशु भाव), वीरा-चार तथा कुला-चार (वीर भाव), सिद्धान्ताचार (दिव्य भाव) हैं, भिन्न-भिन्न तंत्रों में दक्षिणा-चार, वीरा-चार तथा कुला-चार, इन तीन प्रकार के पद्धति या आचारों से शक्ति साधना करने का वर्णन प्राप्त होता है। शैव तथा शक्ति संप्रदाय के क्रमानुसार साधन मार्ग निम्नलिखित हैं :-


1. दक्षिणा-चार, पश्वाचार (पशु भाव) ; जिसके अंतर्गत, वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार के कर्म निहित हैं जैसे, दिन में पूजन, प्रातः स्नान, शुद्ध तथा सात्विक आचार-विचार तथा आहार, त्रि-संध्या जप तथा पूजन, रात्रि पूजन का पूर्ण रूप से त्याग, रुद्राक्ष माला का प्रयोग, ब्रह्मचर्य इत्यादि नियम सम्मिलित हैं, मांस-मत्स्यादी से पूजन निषिद्ध हैं। ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत आवश्यक है, अथवा अपनी स्त्री में ही रत रहना ब्रह्मचर्य पालन ही समझा जाता है। पंच-मकार से पूजन सर्वथा निषिद्ध है, यदि कही आवश्यकता पड़ जाये तो उनके प्रतिनिधि प्रयुक्त हो सकते हैं। साधना का आरंभ पशु भाव से शुरू होता है, तत्पश्चात शनै-शनै साधक सिद्धि की ओर बढ़ता है।


2. वामा-चार या वीरा-चार (वीर भाव) ; शारीरिक पवित्रता स्नान-शौच इत्यादि का कोई बंधन नहीं हैं, साधक सर्वदा, सर्व स्थान पर जप-पूजन इत्यादि करने का अधिकारी है। मध्य या अर्ध रात्रि में पूजन तय प्रशस्त हैं, मद्य-मांस-मतस्य से देव पूजन, भेद-भाव रहित, सर्व वर्णों के प्रति सम दृष्टि तथा सम्मान इत्यादि निहित है। साधक स्वयं को शक्ति या वामा कल्पना कर साधना करता है।


3. सिद्धान्ताचार : शुद्ध बुद्धि! इसी पद्धति या आचार के साधन काल में उदय होता है, अपने अन्दर साधक शिव तथा शक्ति का साक्षात् अनुभव कर पाने में समर्थ होता है। संसार की प्रत्येक वस्तु या तत्व, साधक को शुद्ध तथा परमेश्वर या परमशिव से युक्त या सम्बंधित लगी है, अहंकार, घृणा, लज्जा इत्यादि पाशों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता है। अंतिम स्थान कौलाचार या राज-योग ही है, साधक साधना के सर्वोच्च स्थान को प्राप्त कर लेता है। इस स्तर तक पहुँचने पर साधक सोना और मिट्टी में, श्मशान तथा गृह में, प्रिय तथा शत्रु में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं रखता है, उनके निमित्त सब एक हैं, उसे अद्वैत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती हैं। इन्हीं आचार-पद्धतियों को भाव त्रय भी कहा गया है।


1. पशु भाव 2. वीर भाव 3. दिव्य भाव कहा जाता है।