Sunday, September 13, 2020

तंत्र और बलि भाग - 01

 बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है। इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है।


हमारे शास्त्रों मे बलि के दो रूपों का वर्णन मिलता है

१.वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि शब्द से अभिहित होते हैं।

२.दूसरा पशु आदि का बलिदान है 

विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथमोक्त बलि है यह अन्न भाग देवयज्ञ के लक्ष्यभूत देव के प्रति एवं जल , वृक्ष , गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट होता है

हमारे प्राचीन गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है

बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है

स्मार्त पूजा में पूजोपकरण अर्थात जिससे देवताओं की पूजा की जाती है उसे भी बलि कहा दाता है


बलि पूजोपहार: स्यात

यह बलि भी देव के प्रति उत्सृष्ट होती है

देवी-देवता के उद्देश्य में छाग आदि पशुओं का जो हनन किया जाता है वह बलिदान ही कहलाता है.... तंत्र आदि में महिष , छाग , गोधिका , शूकर , कृष्णसार, शरभ, हरि (वानर) आदि अनेक पशुओं को बलि के रूप में माना गया है

इक्षु, कूष्मांड आदि नानाविध उद्भिद् और फल भी बलिदान माने गए हैं

बलि के विषय में अनेक विधिनिषेध हैं बलि को बलिदानकाल में पूर्वाभिमुख रखना चाहिए और खंडधारी बलिदानकारी उत्तराभिमुख रहेगा - यह प्रसिद्ध नियम है

बलि योग्य पशु के भी अनेक स्वरूप लक्षण कहे गए हैं।

पंचमहायज्ञ के अंतर्गत बलि के कई अवांतर भेद कहे गए हैं - आवश्यक बलि, काम्यबलि आदि इस प्रसंग में ज्ञातव्य हैं

कई आचार्यों ने छागादि पशुओं के हनन को तामसपक्षीय कर्म माना है, यद्यपि तंत्र में ऐसे वचन भी हैं जिनसे पशु बलिदान को सात्विक भी माना गया है

कुछ ऐसी पूजाएँ हैं जिनमें पशु बलिदान अवश्य अनुष्ठेय होता है


हिन्दु तंत्रों मे जो निम्न प्रकार से इनमें बलि के बारे में विस्तार पूर्वक से हमे ज्ञान मिलता है :-

वीरतंत्र,

भावचूड़ामणि,

यामल,

तंत्रचूड़ामणि,

प्राणतोषणी

महानिर्वाणतंत्र,

मातृकाभेदतंत्र,

वैष्णवीतंत्र,

कृत्यमहार्णव,

वृहन्नीलतंत्र,


इन ग्रंथों में बलिदान विशेषकर पशुबलिदान संबंधी चर्चा का विस्तार से वर्णन आया है❗️

इन सबके अलावा तंत्र मे अनेक प्रकार से बलि दी जाती है जैसे कि

१.जडी -बूटियों के माध्यम से

२.नीबूं

३.जायफल

४.हरडा

५.नारियल

६.कलेजी

इत्यादि अनेक प्रकार से कुछ साधनाओं मे सात्विक बलियों का विधान प्राप्त होता है

कुछ तंत्र पद्धति मे तामसिक बलि का वर्णन आता है जैसे कि :-

१.मुर्गे

२.भेड-बकरे

३.मांस

४.कलेजी

५.अण्डे

६.मत्स्य

७. मदिरा

इत्यादि अनेक प्रकार का विधान है ...

हर क्षेत्र मे अपनी अपनी क्षेत्र रीति के अनुसार ही बलि प्रथा व विधान प्रचलित है

जैसी जैसी साधनाये वैसा वैसा विधान प्रचलित है

हर क्षेत्र मे किसी न किसी देवी देवता को वर्ष मे एक बार बलि अवश्य ही चढ़ाते है

क्योंकि यह रीत हमारे पूर्वजों से होती आ रही है और हम सब उनके द्वारा बनाये गये विधान व रीति के अनुसार अपने अपने क्षेत्र के देवी देवता की रीति को अपनाते आ रहे है


कहीं कही पे भैंसा की बलि ,सुअर की बलि,या किसी अन्य वन्य जीव की बलि चढ़ाने की प्रथा प्रचलित है

👉🏻पर जब बात हमारे वैदिक व यज्ञ अनुष्ठान या तंत्र के पूर्वाचार समयाचार दक्षिणाचार की आती है तो बलि का विधान सात्विकता ले लेता है

👉🏻फिर तंत्र मे बिशिष्ट जड़ी बूटी ,नींबू ,फल,नारियल ,जायफल,कायफल,या किसी अन्य सात्विक वस्तु की बलि ही दी जाती है

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सात्विक पूजा में पशुबलि सर्वथा निषिद्ध है । महाकाल संहिता में स्पष्ट लिखा गया है कि जो आराधक सात्विक आराधना करता है, वह बलिदान के लिए भूल से भी पशुहत्या नहीं करता । वह ईख, कूष्मांड (सीताफल), नीबू व अन्य वन्यफलों की बलि देता है या खीरपिंड, आटे अथवा चावल से पशु बनाकर बलि देता है ।


आगमशास्त्र में तांत्रिक साधना की सिद्धि के लिए पशुबलि के महत्त्व को रेखांकित किया गया है । काली को तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक अपनी आराध्य देवी मानते हैं । उल्लेख मिलता है कि प्राचीनकाल में तांत्रिक मानवबलि दिया करते थे । आजकल साधना के अंत में साधक काली को बकरे की बलि देते हैं ।


शक्ति देवियों की आराधना तीन प्रकार से की जाती है--सात्विक, राजस और तामस । निस्वार्थ और कामनारहित की जाने वाली आराधना सात्विक होती है । इसमें पशुबलि विधान नहीं है । राजस आराधना स्वार्थवश की जाती है । आराधक यश और संपन्नता की इच्छा से आराधान करता है । स्वार्थपूर्ति के लिए वह पशुबलि देने से भी नहीं हिचकता । तांत्रिकों और अघोरियों में तामस आराधना का विधान है । आराधना के बाद देवी काली को पशुबलि और मदिरा चढाते हैं और स्वयं मांस और मदिरा का सेवन करते हैं ।

यज्ञ और तंत्र साधना में ‘‘पशु बलि’’ का प्रचलन सर्वविदित है। कामाख्या शक्तिपीठ, छिन्नमस्ता और कालिका सहित कई देवी मंदिरों में  पशुबलि अनिवार्य विधान के रूप में प्रचलित है।


‘पौरोहित्य कर्म प्रशिक्षक’’ के अनुसार पिंडदान में गौबलि, काकबलि, श्वानबलि का के मंत्र हैं जिनके आधार पर गाय, कौआ व कुत्ते का पिण्ड निकालने की व्यवस्था है, न कि पशु वध करने की। 


तंत्र साधना में पंचमकार के आधार पर पशुबलि का प्रावधान है। ‘‘कामाख्यातंत्रम्’’ नामक ग्रन्थ के तृतीय पटल के श्लोक सं. 22 से 30 तक पंचमकार की महिमा का वर्णन किया गया है। ग्रन्थकार लिखता है - ‘‘मद्येन मोदते स्वर्गे, मांसेन मानवाधिपः, मत्स्येन भैरवीपुत्रो मुद्रया धातृतां व्रजेत, परेण च महादेवि सायुज्यं लभते नरः।’’ पंचमार प्रयोक्ता मद्य (शराब) के द्वारा देवी की पूजा करने से स्वर्ग में आनंद उठाता है, मांस से पूजा करने पर साधक ‘‘शासक’’ बन जाता है, मत्स्य के द्वारा देनी की अर्चना करने से साधक भैरवीपुत्र हो जाता है। मैथुन से साधक शक्ति के साथ सायुज्य प्राप्त करता है। ग्रन्थ के पंचम एवं षष्ठ पटल में पंचमकार के तहत मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा एवं मैथुन से उपासना विधि का उल्लेख किया गया है। श्रीरुद्रयामल तंत्रोक्त ‘‘श्रीदेवी रहस्यम्’’ नामक ग्रन्थ के पन्द्रहवें-सोलहवें पटल में श्मशानार्चन विधि का विस्तार से उल्लेख है। उन्नीसवें पटल में मद्योत्पत्ति का रहस्य उल्लिखित है, जबकि 20वें पटल में पात्रवंदन विधि का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा- ‘‘पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले। पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।’’ 22वें पटल में द्रव्यशोधन विधान के अंतर्गत श्लोक सं. 135 से 137 तक मत्स्यशोधन मंत्र विधान करते हुए ग्रन्थकार लिखता है- ‘‘कलि से पीड़ित संसार के दुख निवारणार्थ स्वयं विष्णु ने मत्स्यावतार लिया था। कौलिकों के कल्याण की इच्छा से वे बलि से निग्रहीत हुए। गंध-पुष्प से मत्स्य पूजनकर परा देवता को प्रणाम करें। श्लोक सं. 138 से 141 तक मांस शोधन विधान है- ‘‘एक चतुरस्र बनाकर उसपर मांसपात्र को रखें। पूर्वोक्त विधि से शोषण, दाहन एवं प्लावन करके धेनु, योनि, मत्स्यमुद्रात्रय प्रदर्शित करें मत्र्यों के त्राण के लिए छाग-लाजा (बकरा-भेड़) का रूप विष्णु ने ग्रहण किया। शिवशक्ति की बलि के लिए प्रतर्पित करता हूं।’’   ‘‘महानिर्वाणतंत्रम्’’ ग्रन्थ के पंचम उल्लास में पंचमकार शोधनविधि बताई गई है, जबकि षष्ठ उल्लास में पंचमकार के क्रमशः भेद बताते हुए ग्रन्थकार लिखता है - मांसं तु त्रिविधं प्रोक्तं जलभूचरखेचरम्। यस्मात्तस्मात्समानीतं येन तेन विधातितम्।।’’ मांस तीन प्रकार का होता है जलचर का मांस, भूचर का मांस एवं खेचर का मांस। मांस देवों को प्रसन्नता प्रदायक होता है। यहां यह उल्लेखनीय है- ‘‘बलिदानविधौ देवि विहितः पुरुषः पशुः। स्त्रीपशुर्न च हन्तव्यस्तत्र शाम्भवशासनात्।।’’ हे देवि! बलिदान में नरपशु ही विहित है, महादेव के शासन में मादापशु की हत्या नहीं करनी चाहिए। इसी क्रम में मत्स्य भेद इस प्रकार है- ‘‘तीन प्रकार के उत्तम मत्स्य शाल, वोयाल और रोहू हैं। अन्य कंटकहीन मछली मध्यम् और बहुत कांटों वाली मछली अधम है, जिसे अच्छी तरह तलकर ही देवी को दे सकते हैं। षष्ठ उल्लास में श्लोक सं. 104 से 110 तक पशुबलि विधान बताया गया है- ‘‘बलि के लिए प्रशस्त पशु दश माने गये हैं। 1 मृग (हिरन), 2 छाग (बकरा), 3 मेष (भेड़), 4 महिष (भैंसा), 5 शूकर (सुअर), 6 शल्लकी साहिल, 7 शशक (खरगोश), 8 गोधा (गोह), 9 कूर्म (कछुआ) 10 गंडार। साधक देवी के सामने पशु को खड़ा करके अघ्र्यजल से नहलाये और धेनुमुद्रा से अमृतीकरण करे। ‘‘छागाय पशवे नमः’’ मंत्र से यथा संभव गंध, सिन्दूर, पुष्प, नैवेद्य से पूजन करेपशु के दायें कान में पशुगायत्री मंत्र ‘‘पशुपाशाय विद्महे विश्वकर्मणे धीमहि तन्नो प्रचोदयात्’’ सुनावे। श्लोक सं. 111 से 114 तक खड्ग पूजन विधि बताई गई है। श्लोक संख्या 115 से 118 तक बलिदान विधान है- ‘‘विधिपूर्वक निवेदन करके पशु को भूमि पर खड़ा करें देवी भक्ति पररायण होकर तीक्ष्ण प्रहार से पशु का सिर छेदन कर दें। ‘‘एष कवोष्णरुधिर बलिः ऊं बटुकेभ्योः नमः’’ का उच्चारण करते हुए उष्ण रुधिर की बलि वटुक को प्रदान करें। तब कटे हुए शिर को थाल में रखकर उसके ऊपर दीपक जलाये ‘‘एष सम्प्रदीपशीर्षबलिः ऊं ह्रीं देव्यै नमः’’ का उच्चारण करते हुए देवी को अर्पित करें। कौलिकों के कुलार्चन में इसी प्रकार की बलि का विधान है। बिना बलिदान के देवता की प्रीति कदापि नहीं प्राप्त होती है। तंत्रसाधना में नरबलि एवं पशुबलि को आवश्यक विधान कहना कतई गलत नहीं है, क्योंकि विभिन्न तंत्र-ग्रन्थ मांसादि पंचमकार के तहत पशुबलि की अनिवार्यता को प्रामाणिकता प्रदान कर रहे हैं। ‘‘श्रीविद्यासाधना’’ के द्वितीय अध्याय में पंचमकार की प्रतीकार्थ विवेचना में मद्य को सहस्रदल कमल के चन्द्रमा से क्षरित मधुरूप अमृत कहा गया है, जबकि मांस को ऐसे निर्मल मन की संज्ञा दी गई है, जो ज्ञान रूपी खड्ग से पाप-पुण्यरूपी पशु बलि से विशुद्ध है। मत्स्य को गंगा-यमुना (इड़ा-पिंगला) में प्रवाहित श्वांस-प्रश्वांस कहागया है, मुद्रा को असत्संग के परित्याग और मैथुन को कुण्डलिनी शक्ति का सहस्रारस्थ शिव के साथ मिलन का प्रतीक सिद्ध किया गया है। ‘‘एकजटातारासाधनतन्त्रम्’’ में बलि निवेदन मंत्र ‘‘ऊं ह्रीं एकजटे महायक्षाधिपतये मयोपनीतं बलिं गृहाण गृहाण गृह्णापय गृह्णापय मम सर्वशान्तिं कुरु कुरु परविद्याकृष्याकष्य क्रट क्रट छिन्धि छिन्धि सर्वजगद्वशमानय ह्रीं स्वाहा’’। श्लोक सं. 171 से 176 तक बलिदान मंत्र दिये गये हैं। ‘‘मातृकाभेदतन्त्रम्म्’ ग्रन्थ के दशम् पटल में कहा गया है- ‘‘बलिदानं प्रकर्तव्यं न मांसं भक्षयेन्नरः, सम्यक् फलं न लभते दशांशं लभते प्रिये।’’ यदि बलि के बाद मनुष्य उसके मांस का भक्षण नहीं करता है तो उसे पूर्ण फल की प्राप्ति नहीं होती, मात्र उसे दशांश भाग का ही फल प्राप्त होता है। यहां दशम् पटल के श्लोक सं. 12 से 18 तक पशुबलि की अनिवार्यता के महात्म्य की विवेचना की गई है। इसी क्रम में मुंडमाला तन्त्र में ‘‘छागे दत्ते भवेद्वाग्मी मेषे दत्ते कविर्भवेत्, महिषे धनवृद्धिः स्यान्मृगे मोक्षफलं लभेत्। पक्षिदाने समृद्धिः स्याद् गोधिकायां महाफलम्, नरे दत्ते महर्दि्धः स्यादष्टसिद्धिरनुत्तमा।’’ छाग (बकरा) की बलि से वाक्पटुता आती है, मेष (भेड़) बलि देने से कवि होता है, महिष (भैंसा) बलिदान से धनवृद्धि, हिरन बलि से मोक्ष प्राप्ति होती है, पक्षी देने से समृद्धि, गोह देने से महाफल, नर बलि से महर्दि्ध होती है ये उत्तम अष्टसिद्धि भेद हैं। यहीं आगे नरबलि का निषेध भी है ‘‘सिंहव्याघ्रनरान् दत्वा ब्राह्मणो रौरवं ब्रजेत्।’’ तथा ‘‘कालीतन्त्र’’ के एकादश पटल में उल्लेख है ‘‘ंददाति बलिं यस्तु शिवायै शिवताप्तये, स पापिष्ठो नाधिकारी कुलदेव्याः समच्र्चने।’’ ‘‘महाकालसंहिता’’ ग्रन्थ के षष्ठ पटल में श्लोक सं. 94 से 106 तक बलिदान निमित्त खड्गसिद्धि और खड्ग समर्पण मंत्र और विधान हैं। श्लोक सं. 107 ‘‘ततः स्वगात्ररुधिरं देव्यै दद्यान्नृपो बलिम्, ततो दद्यान्नरबलिमभावे महिषायुतम्।’’ खड्ग पूजनोपरान्त राजा (साधक) अपने शरीर की बलि दे, इसके बाद नरबलि। नरबलि के अभाव में महिष (भैंसा) की बलि दे। इसी ग्रन्थ के सप्तम् पटल के श्लोक सं. 59 से 96 तक पशं-पक्षियों और मनुष्य की बलि तथा मांस-होम विधान एवं महात्म्य का विस्तृत वर्णन है। ‘‘त्रिपुरार्णवतन्त्रम्’’ ग्रन्थ की एकोनविंश (19वीं) तरंग के श्लोक 140 से 150 तक विशेष बलि विधान है। ‘‘ दद्यान्मंत्रेण खड्गं तु तस्मै प्रत्यंग्मुखस्ततः, शमितोदंग्मुखः छागं प्रार्थयेत् प्रांमुखं पशुम्।  ततोऽस्त्रमुच्चरंश्छिन्द्यात् सकृद्घातेन वै गले, गत प्राणं दक्षपृष्ठ-प्रांग्मुर्धानं विनिक्षिपेत्। मस्तकेन च संयोज्य ततस्तु छुकिा तथा दद्यात्तस्मै तथा मत्स्यान् घातयेदखिलामपि।’’  उपासनायुक्त, श्रद्धाभक्तिसमन्वित शान्त एवं सौम्य सच्छूद्र की नियुक्ति करे। फिर पश्चिममुख खड़े उस वधिक के हाथ में अभिमंत्रित तलवार दे शान्त उत्तरमुख पशु को पूर्वाभिमुख यजमान तत्पश्चात हथियार उठाकर एक ही घात में छाग का सिर धड़ से अलग कर दे गत प्राण छाग की पीठ दक्षिण एवं शिर पूर्व की ओर करके रख दे। शिर को धड़ से जोड़कर, उसके हाथ में छुरी दे दे, उससे वह सारी मछलियों को मार दे। आत्मनियन्त्रित व्यक्ति की उपस्थिति में उन्हें भी वस्त्र से ढँककर उनकी पूजा कर उन्हें अन्न वस्त्र विसर्जित कर दे। आचार्य के साथ पूर्व कथित क्रम के मन्त्रोच्चार के साथ पशु के अंग को आगे रखकर कलश जल से सिंचित करे। हाथ में छुरी लेकर मंत्र पढ़ते हुये उसके शरीर का टुकड़ा करे, इससे पूर्व उसे बाँधकर उसकी खाल उड़ेल दे। सूक्ष्मदृष्टि से मछलियों को भी उसी तरह कर, हे शंकरि, मंत्र पढ़ते हुये पाकशाला में सौंप देना चाहिये। साधकाचार्य को यह दिखलायें, वे भी इसे अलग पकायें, अथवा हे देवेशि, उनके अंग-प्रत्यंगों को अभिसिंचित कर एक साथ पकायें। आचार्य फिर लौटकर वहाँ आ जायें और छाग एवं मछलियों के रक्त, जो वहाँ धरती पर गिरे हों उन को उठाकर देवी को समर्पित कर दें। फिर, वहाँ हड्डियाँ, मल, पित्त और कफादि, खुर, चमड़ी आदि को भी मण्डप के बीच में खोदकर गाड़ दें।     

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